चक्रव्यूह

रिश्तों को निभाने में हमारी हालत अभिमन्यु जैसी हो गई है।  हमें रिश्तों के चक्रव्यूह में घुसने का रास्ता तो मालूम है, पर उससे निकलने का सलीका नहीं पता। शिकवे, शिकायतें, बेवफाइयां, ऊब, खीझ, अपेक्षाएं, उपेक्षाएं मिलकर तिल-तिल रिश्ते को मारते हैं और हम कभी उसे मारने वालों में, तो कभी मरते देखने वालों में शामिल होते हैं। हम मासूम होने का अभिनय करने वाले शातिर लोग हैं, हमारी एक जेब में विक्टिम कार्ड और दूसरी में रिश्तों को छलनी करने वाला छुरा होता है। मजेदार बात यह कि जब चारों ओर रिश्तों के खून की दुर्गंध पसर जाती है, तब हम विक्टिम कार्ड निकाल कर खेल खत्म होने का ऐलान करते हैं। 

दुनिया भर के तमाम शिकवे-शिकायतों, आंसुओं के बजाय हमें यह कहना कब आएगा कि अब दो लोग वे चाहे भाई-भाई हों, दोस्त हों, प्रेमी-प्रेमिका हों या कि पति-पत्नी अब साथ नहीं रह सकते? जरूरी नहीं कि 'विक्टिम कार्ड' खेला जाए, जरूरी नहीं कि कोई दिखने या दिखाने वाली वजह हो ही अलग होने की, जरूरी नहीं कि रिश्तों का खून करके ही उनसे मुक्त हुआ जाए; साथ रहकर, साथ न होने से बेहतर होता है, दूर रहकर साथ न होना! जुड़ने की हड़बड़ी से ज्यादा जरूरी है छूटने का हुनर सीखना, यूं कि छूटने पर एक नरम सा पल बचा रहे सीने में, जैसे जेठ में मेघ की याद या माघ में घाम की गरमाई ।

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