PART - 1
“अगर
तुम रोज़ यूँ ही चीनी खाते रहे तो ये कितने दिन चलेगी?”—खाना ख़त्म होते
ही जैसे ही सिद्धार्थ
ने चीनी के कुछ
दाने मुँह में डाले,
राजन की यह बात
तीर-सी निकलकर आई।
बड़े भाई के मुँह
से निकला यह वाक्य सुनते
ही सिद्धार्थ एक पल को
ठिठक गया।
उसने हल्की-सी मुस्कान ओढ़
ली—वैसी मुस्कान जो
भीतर के घाव छिपाती
है—और चुपचाप बालकनी
में चला गया।
सामने
सड़क पर गाड़ियाँ दौड़
रही थीं, लोग अपनी-अपनी गति में
बह रहे थे।
सिद्धार्थ उन सबको देख
रहा था, जैसे ज़िंदगी
की रफ्तार को पढ़ने की
कोशिश कर रहा हो।
लेकिन उसके भीतर अजीब-सी हलचल थी—एक बेचैनी जो
कहीं गहरे से उठकर
पूरे मन पर छा
रही थी।
राजन की बात साधारण
थी, लेकिन उसके दिल तक
असाधारण ढंग से उतर
गई।
ग्रेजुएशन
के बाद उसने विश्वविद्यालय
की कई प्रवेश परीक्षाएँ
दी थीं, पर मनचाहा
विषय न मिलने पर
उसने अंग्रेज़ी में पोस्टग्रेजुएशन करने
का निर्णय लिया—क्योंकि अंग्रेज़ी
उसके मन का विषय
था, और उसी के
सहारे वह प्रतियोगी परीक्षाओं
की तैयारी भी जारी रख
सकता था।
गाँव में माँ अकेली
थीं, इसलिए वह गाँव और
विश्वविद्यालय, इन दोनों के
बीच अपनी पढ़ाई और
ज़िम्मेदारी का संतुलन बनाए
रखता।
पिता
एलनपुर में अध्यापक थे—एक संजीदा, ईमानदार
शिक्षक, जिनके शब्दों में अनुशासन और
जीवन-दर्शन दोनों बसते थे।
सिद्धार्थ दो बड़े भाइयों
का छोटा भाई था—राजन और विजय।
विजय सबसे बड़े थे—उनकी शादी हो
चुकी थी, पत्नी और
बेटे के साथ वही
पिता के पास रहते
थे।
घर का हर सदस्य
अलग-अलग जगहों पर
था, लेकिन परिवार का नाज़ुक-सा
ताना-बाना फिर भी
किसी अदृश्य डोर से बँधा
रहता था।
सिद्धार्थ
बालकनी में खड़ा, शहर
की आवाज़ों और अपने भीतर
की चुप्पी के बीच खड़ा
सोच रहा था—कि
क्यों एक साधारण-सी
बात भी कभी-कभी
दिल को इतना भारी
कर देती है।
राजन
स्नातकोत्तर की पढ़ाई पूरी
करने के बाद सिविल
सेवा परीक्षा की तैयारी के
लिए जयपुर चला गया था।
सिद्धार्थ भी बाहर जाकर
प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करना
चाहता था, पर पिता
की सीमित आय उसके सपनों
के रास्ते में एक संयम
बनकर खड़ी थी। विजय
एक निजी स्कूल में
बेहद कम वेतन पर
अध्यापकीय सेवा दे रहा
था, और राजन की
पढ़ाई तथा रहने का
खर्च स्वयं में ही काफी
बड़ा बोझ था।
इसीलिए सिद्धार्थ ने फिलहाल अंग्रेज़ी
में पोस्टग्रेजुएशन करने का निर्णय
लिया—एक ऐसा निर्णय
जो व्यावहारिक भी था और
उसके मन के अनुकूल
भी।
तीनों
भाई अपने-अपने स्थानों
पर रहते थे, फिर
भी उनके बीच का
स्नेह किसी मजबूत धागे
की तरह उन्हें बांधे
रखता था। वे एक
ही कॉलेज में पढ़े थे,
दोस्त भी साझा थे,
और आपस में भी
ऐसे रहते थे जैसे
मित्रता और भाईचारे का
सुगंधित मेल हो।
सिद्धार्थ
स्वभाव से शांत, गंभीर,
मगर अत्यंत विवेकशील था। समय मिलते
ही वह गाँव के
बच्चों को अंग्रेज़ी और
गणित पढ़ाने लगता। माँ के साथ
रहकर उसे एक अनोखा
सुकून मिलता—जैसे घर की
आंगन में जीवन की
सारी थकान धुल जाती
हो।
गाँव में उसकी पहचान
एक आकर्षक, समझदार और सलीकेदार युवक
के रूप में थी।
उसकी बातों में ताजगी होती,
विचारों में गहराई और
चलन में एक अनकही
शालीनता।
चित्रकारी
उसका प्रिय शौक था।
वह अवसर मिलते ही
रंगों की दुनिया में
खो जाता—कभी कागज़
पर, कभी दीवारों पर,
तो कभी माँ के
साथ चादरों और हाथ के
पंखों पर धागों से
कलाकारी रच देता। गाँव
वाले उसकी बनाई पेंटिंग
देखकर उसके हुनर की
तारीफ़ किए बिना नहीं
रह पाते थे।
उसे एकांत पसंद था, पर
वह अपने आप को
हमेशा किसी न किसी
सार्थक कार्य में व्यस्त रखता।
दोस्त कम थे, पर
मन की दुनिया बहुत
समृद्ध थी—उसे प्रेरक
कहानियाँ पढ़ना, उन्हें दूसरों से बाँटना, और
अंग्रेज़ी में संवाद करना
बेहद प्रिय था।
चीज़ों की पसंद-नापसंद
तय करने का उसमें
एक अनोखा सलीका था। एक समय
था जब आस-पास
की औरतें चूड़ीवाले के आने पर
उससे पूछे बिना कोई
रंग नहीं चुनती थीं।
घर में सबसे छोटा
होने के कारण वह
अपना जीवन अपने बनाये
हुए सरल, सुंदर ढर्रे
पर जीता चला जा
रहा था।
समय अपनी चाल में
आगे बढ़ रहा था।
इसी बीच एक दिन
राजन जयपुर से गांव आया।
डेढ़ वर्ष की तैयारी
के बाद उसने सिविल
सेवा की परीक्षा दी
थी। उसने बताया कि
उसका चयन हो गया
है, पर वह ज्वाइन
नहीं करेगा—क्योंकि मिली हुई रैंक
के आधार पर मनचाही
पोस्ट नहीं मिल पा
रही थी। वह आगे
की परीक्षा फिर से देने
का इरादा रखता था।
यह सुनकर सिद्धार्थ अत्यंत प्रसन्न हुआ। उसे लगा
कि राजन की मेहनत
अपने फल तक पहुँच
चुकी है। उसी क्षण
उसके भीतर भी भावना
जगी कि वह भी
पोस्टग्रेजुएशन के बाद सिविल
सेवा की ही तैयारी
करेगा।
एक वर्ष बीता, सिद्धार्थ
का पोस्टग्रेजुएशन पूरा हुआ और
उसने राजन तथा परिवार
से जयपुर जाने की इच्छा
प्रकट की। सबने उसकी
बात सहजता से स्वीकार कर
ली। लेकिन राजन के जाने
के बाद माँ का
गांव में अकेले रह
जाना संभव नहीं था,
इसलिए तय हुआ कि
विजय आएगा और माँ
को लेकर पिता के
पास एलनपुर चला जाएगा।
यह तय हो जाने
पर सिद्धार्थ निश्चिंत मन से जयपुर
के लिए रवाना हो
गया।
PART - 2
सिद्धार्थ
अपनी कॉलेज यात्रा के दौरान एक
बार जयपुर आ चुका था,
इसलिए राजन द्वारा दिया
गया पता ढूँढने में
उसे कोई कठिनाई नहीं
हुई। अगस्त का महीना था
और गर्मी अपने चरम पर
थी। राजन ने उसे
देखकर खुशी ज़ाहिर की,
और सिद्धार्थ ने माँ द्वारा
भेजी गई खाने-पीने
की चीज़ें उसे सौंप दीं।
कमरे में मिट्टी के
तेल का एक स्टोव
रखा था, जिस पर
राजन खुद ही खाना
बनाता था। अब सिद्धार्थ
भी धीरे-धीरे खाना
बनाना सीख गया और
वह राजन की मदद
करने लगा।
राजन
सिविल सेवा की तैयारी
में उसका मार्गदर्शन भी
करता। वह सुबह-शाम
उसे पढ़ाता, और सिद्धार्थ अत्यंत
उत्साह के साथ पढ़ाई
में डूब जाता।
एक सप्ताह की तैयारी के
बाद जब राजन ने
उसका टेस्ट लिया, तो सिद्धार्थ के
अत्यंत अच्छे अंक देखकर वह
भी प्रसन्न हुआ।
सिद्धार्थ
में बढ़ती लगन और क्षमता
को देखकर राजन को महसूस
होने लगा था कि
अगले वर्ष होने वाली
परीक्षा में सिद्धार्थ का
चयन पूरी तरह संभव
है।
राजन
जिस मकान में किराये
पर रहता था, वह
अभी अधूरा-सा खड़ा था—दीवारों पर पुताई तक
नहीं हुई थी और
खुली ईंटें जैसे अपने निर्माण
की कहानी स्वयं कह रही थीं।
कुछ ही दिनों बाद
मकान मालिक ने उनसे आग्रह
किया कि वे ऊपर
वाले कमरे में शिफ्ट
हो जाएँ, जहाँ पुताई पूरी
हो चुकी थी, ताकि
नीचे उनके कमरे की
भी मरम्मत करवाई जा सके। राजन
और सिद्धार्थ ने सामान समेटा
और ऊपर के कमरे
में आकर रहने लगे।
ऊपरी
मंज़िल पर उनके कमरे
के साथ ही एक
छोटा-सा संकीर्ण कमरा
और था, जिसमें भँवरलाल
नाम का एक युवक
रहता था—वह भी
सिविल सेवा की तैयारी
में जुटा हुआ था।
कहते तो लोग उसे
किराए का "कमरा" कहते थे, पर
वह अधिक एक रसोई
जैसा था। कम किराए
के कारण भँवरलाल कई
वर्षों से उसी में
अपने सपनों और संघर्षों को
समेटे रहता आया था।
शुरुआत
में सब कुछ सामान्य
था। दिनचर्या सधे हुए ढंग
से चल रही थी—सुबह पढ़ाई, दोपहर
का सादा भोजन, शाम
की तैयारी। किंतु जैसे जीवन की
आदत होती है, वह
उतनी ही शांति से
अपने तूफ़ान भी साथ लाता
है। शायद नियति ने
भी मन ही मन
कुछ और तय कर
रखा था।
धीरे-धीरे राजन का
भँवरलाल के कमरे में
आना-जाना बढ़ने लगा।
कई बार तो वह
वहीं बैठकर खाना भी खा
लेता और सिद्धार्थ से
कह देता—"तुम अपना बना
लेना, मैं यहीं खा
लूँगा।"
सिद्धार्थ को भँवरलाल का
हावभाव, उसकी बातें, उसका
ढंग—कुछ भी पसंद
नहीं आता था। वह
शांत बैठा पढ़ाई करता
रहता, पर उनके कमरे
में होने वाली हर
बातचीत उसके कानों में
साफ उतरती रहती।
उन्हीं
टूटी-फूटी बातों से
सिद्धार्थ को धीरे-धीरे
एक ऐसी सच्चाई का
ज्ञान हुआ जिसने उसके
भीतर कुछ तोड़ दिया—राजन का नौकरी
में चयन हुआ ही
नहीं था। वह सब
बातें, जो राजन ने
घर जाकर बड़े गर्व
और सहजता से बताई थीं,
केवल किसी हताश मन
की ढहती हुई इमारत
को सहारा देने वाली बातें
थीं। वहीं भँवरलाल पिछले
सात वर्षों से तैयारी कर
रहा था, और उसकी
भी अब तक कोई
नियुक्ति नहीं हुई थी।
आने वाली सिविल सेवा
परीक्षा को लेकर भी
दोनों स्वयं असमंजस और भय में
थे।
सिद्धार्थ
का मन जैसे किसी
ने भींच लिया हो।
राजन की बताई बातों
पर उसने भरोसा करके
ही अपना जीवन-मार्ग
मोड़ दिया था, उसी
राह पर चलने का
निश्चय किया था। अब
वह राजन को और
ध्यान से देखने लगा—उसकी बेचैनी, उसकी
थकान, उसके भीतर छिपी
खामोशी सब कुछ उसे
स्पष्ट दिखाई देने लगा।
एक शाम सिद्धार्थ ने
खाना बनाया। सादी रोटियाँ और
दाल। उसने प्यार से
राजन की थाली में
भी परोस दिया। खाने
बैठे तो सिद्धार्थ ने
देखा—राजन हर निवाले
के साथ जैसे उबकाई-सी रोक रहा
है। उसका चेहरा तनाव
से भरा था, जैसे
मन में कोई बोझ
लगातार दबाव डाल रहा
हो। स्टोव पर बनी रोटियाँ
अकसर वैसी नहीं बन
पाती थीं जैसा घर
में बनती थीं; न
उनका आकार परफेक्ट होता
था, न स्वाद। और
स्वाद की कमी पूरी
करने के लिए खाना
खत्म होने के बाद
सिद्धार्थ कभी-कभी थोड़ी
चीनी खा लेता था—एक मीठा कण,
जो उसे अपने घर
का एहसास दिला देता था।
उस दिन भी उसने
वैसा ही किया। लेकिन
जैसे ही उसने चीनी
के दाने मुँह में
रखे, राजन ने हँसी
में कहा—
“अगर तुम रोज़ इतनी
चीनी खाओगे, तो ये कितने
दिन चलेगी?”
कहना
तो वह हल्के-फुल्के
अंदाज़ में चाहता था,
पर बात सिद्धार्थ के
दिल में कहीं गहरे
उतर गई।
उसे याद आया—घर
में कभी किसी ने
उसे खाने के लिए
टोक़ा नहीं था। न
कभी खाने की कमी
रही, न कभी स्नेह
की। आज की यह
छोटी-सी टिप्पणी उसे
भीतर तक चुभ गई।
और तभी उसे लगा—शायद यहाँ सिर्फ
खाना ही फीका नहीं
है;
कुछ और भी है जो धीरे-धीरे स्वाद खो रहा है—भरोसा, अपनापन और उनकी पुरानी सहजता।
बालकनी
से लौटकर सिद्धार्थ अपनी किताबें लेकर
बैठ गया। उसने धीरे
से राजन की ओर
देखा—वह सामने ही
अपनी मेज़ पर बैठा
था। किताबें खुली थीं, पन्ने
उसके सामने फैले हुए थे,
मगर उसकी आँखें बंद
थीं। सिद्धार्थ देर तक उसे
निहारता रहा। राजन की
वह स्थिर, थकी हुई मुद्रा,
उसका झुका हुआ चेहरा,
और उसके चारों ओर
खिंची हुई खामोशी… सब
कुछ मानो किसी अदृश्य
बोझ की तरफ़ इशारा
कर रहे थे। सिद्धार्थ
समझने की कोशिश करता
रहा कि उसके भीतर
क्या घट रहा है,
पर राजन किसी गहरे
मौन में डूबा हुआ
लगता था।
इसी
बीच एक दिन भँवरलाल
कमरे में आया। उसके
चेहरे पर वही परिचित
उदासी और बेबसी झलक
रही थी, जिससे सिद्धार्थ
धीरे-धीरे परिचित हो
चुका था। उसने आते
ही बताया कि अगले वर्ष
होने वाली राजस्थान सिविल
सेवा परीक्षा स्थगित कर दी गई
है—अब यह उससे
अगले वर्ष होगी। साथ
ही उसने यह भी
कहा कि "राजस्थान एडमिनिस्ट्रेशन की परीक्षाएँ अक्सर
ऐसे ही टल जाया
करती हैं… इंतज़ार लंबा
पड़ जाता है।"
यह सुनकर सिद्धार्थ के भीतर जैसे
कुछ भारी-सा धँस
गया। वह सोचकर आया
था कि राजन की
तरह वह भी जल्द
ही नौकरी पा लेगा। पर
यहाँ तो सब उसकी
योजनाओं के विपरीत घट
रहा था। उसे लग
रहा था कि वह
अपने जीवन की शुरुआत
पहले ही बहुत देर
से कर रहा है—और अब दो
और वर्षों का इंतजार उसके
मन पर किसी चट्टान
की तरह बैठ गया।
वह बेचैन होने लगा। जो
बातें वह राजन से
साझा करना चाहता था,
वह उसके चेहरे पर
छाई थकान और तनाव
देखकर कह ही नहीं
पाता था।
सिद्धार्थ
समझ नहीं पा रहा
था कि आगे क्या
करे। मन में बार-बार गाँव के
दिन याद आते—माँ
के साथ बिताए पल,
उसका चित्र बनाने का शौक, धागों
से की गई कढ़ाई,
अंग्रेज़ी बोलने और लिखने की
उसकी ललक। यहाँ, जयपुर
के इस छोटे-से
किराए के कमरे में,
हिंदी माध्यम के इस विस्तृत
सिलेबस के बीच उसे
लगता था कि जैसे
उसका अपना संसार उससे
छूट रहा है। वह
कभी अनमने ढंग से पढ़ाई
करता, कभी सड़क पर
टहलने चला जाता।
एक दिन दोपहर की
तेज़ गर्मी में वह उस
अधबने मकान की बालकनी
में टहल रहा था।
सड़क इतनी तप रही
थी कि जैसे उसकी
आवाज़ तक जल रही
हो। दूर तक कोई
नहीं दिखता। तभी उसकी नज़र
एक अजीब दृश्य पर
जा ठहरी—एक लड़की
सुनसान सड़क पर जा
रही थी। अचानक एक
लड़का मोटरसाइकिल रोककर उसके पास आया।
लड़की रुक गई। दोनों
कुछ देर बात करते
रहे। लड़के ने उसके साथ
ज़ोर-ज़बरदस्ती जैसी हरकत की,
और फिर दोनों अलग-अलग दिशाओं में
चले गए। सिद्धार्थ को
यह देख मन में
एक खटका लगा। यह
उसके गाँव की शांत
दुनिया से बिल्कुल अलग
था—जैसे शहर अपने
ही तरीके से रिश्तों और
हालात को जीता है।
कुछ
दिनों बाद एक शाम
वह छत पर घूम
रहा था। तभी नीचे
से एक गाड़ी की
आवाज़ सुनाई दी। उसने झुककर
देखा—बगल वाले मकान
के सामने एक लंबी, चमचमाती
कार आकर रुकी थी।
वह उस कार को
देर तक देखता रहा—जैसे उसमें कोई
सपना चमक रहा हो।
उसके भीतर एक चाह
जागी कि एक दिन
वह भी मेहनत करके
ऐसी ही कार खरीदेगा।
जिंदगी की ये छोटी-छोटी झलकियाँ उसे
कभी प्रेरित करतीं, कभी उसकी बेचैनी
बढ़ा देतीं।
इन्हीं
उलझनों से भरे दिनों
में एक शाम राजन
ने कहा,
“चलो आज तुम्हें भी
भँवरलाल के पास खाना
खिला के लाता हूँ।”
सिद्धार्थ
ने हँसकर पूछा, “उसके खाने में
ऐसा क्या ख़ास है?”
राजन ने मुस्कराकर कहा,
“चलोगे तो खुद समझ
जाओगे।”
सिद्धार्थ
कुछ संकोच, कुछ जिज्ञासा के
साथ उसके साथ चल
दिया।
भँवरलाल
के कमरे में प्रवेश
करते ही सिद्धार्थ को
एक अजीब, तीखी-सी गंध
ने घेर लिया। वह
गंध उसके लिए बिल्कुल
अपरिचित थी—और असहनीय
भी। भँवरलाल एक बर्तन में
कुछ पका रहा था।
सिद्धार्थ से रहा न
गया—उसने पूछ ही
लिया,
“इसमें क्या बन रहा
है?”
भँवरलाल
ने मुस्कराकर राजन की ओर
देखा।
सिद्धार्थ की आँखें उलझन
से फैल गईं।
राजन थोड़ा असहज-सा हुआ,
फिर धीमे से बोला,
“इसमें… मटन बन रहा
है।”
“मटन?”
सिद्धार्थ ने लगभग अविश्वास
से कहा, “मतलब…?”
भँवरलाल ने सहजता से
उत्तर दिया,
“मतलब बकरे का मांस।”
सिद्धार्थ
कुछ पल भँवरलाल को
देखता रह गया—उसका
चेहरा, उसकी मुस्कान, उसकी
सहजता सब उसे किसी
अनजानी दुनिया जैसे लगे। फिर
वह धीरे-धीरे राजन
की तरफ़ मुड़ा।
सिर्फ एक ही वाक्य
उसके होंठों से निकला—
“ये… तुम भी?”
राजन
ने शांत भाव से
कहा,
“हाँ। ये तो अपनी
इच्छा की बात है।
अगर तुम चाहो, तो
आज हमारे साथ खा सकते
हो।”
इतने
में भँवरलाल ने बर्तन का
ढक्कन हटा दिया।
उससे उठती भाप के
साथ मांस के लाल,
कच्चे-सुलगते टुकड़े दिखाई दिए।
सिद्धार्थ
स्तब्ध रह गया—जैसे
उसकी पूरी देह जड़
हो गई हो।
उसने आज तक मांस
को इस रूप में
कभी देखा नहीं था।
खाना तो बहुत दूर
की बात थी।
उस क्षण, उसे लगा कि
वह अपने घर, अपने
बचपन, अपनी दुनिया से
कितनी दूर चला आया
है—और यह दूरी
शायद सिर्फ जगह की नहीं
थी।
सिद्धार्थ
वहाँ से उठकर सीधे
अपने कमरे में चला
आया। उसके भीतर जैसे
कोई तूफ़ान उठ रहा था—राजन के बारे
में सोचते हुए उसके हाथ
काँप रहे थे और
शरीर में हल्की-सी
कंपन दौड़ रही थी।
वह कभी कुर्सी पर
बैठ जाता, फिर बेचैनी में
उठकर बालकनी में चला जाता।
कमरे की चारदीवारियाँ उसे
घेरती हुई-सी लग
रही थीं। कुछ देर
बाद वह थककर बिस्तर
पर लेट गया, आँखें
बंद कीं, लेकिन नींद
तो जैसे उससे बहुत
दूर खड़ी थी।
उसके
मन में विचार ऐसे
दौड़ रहे थे मानो
कोई तेज़ आँधी चली
हो। भँवरलाल के कमरे से
आने वाली वही तीखी
गंध—जिसे वह पहले
भी कई बार महसूस
कर चुका था जब
राजन वहाँ खाना खाने
जाता था—अब उसके
भीतर किसी भारी सच्चाई
की तरह उतर आई
थी। राजन का कहना—
"सबकी अपनी इच्छा होती है, तुम चाहो तो हमारे साथ खा सकते हो"
उसके सीने में किसी
तीक्ष्ण तीर-सा चुभ
गया था।
जिस
भाई को वह आदर्श
मानता था, वही अब
उससे कह रहा था
कि वह अपने निर्णय
स्वयं ले। यह वाक्य
उसके भीतर किसी अजीब
दुविधा का दरवाज़ा खोल
गया था। वह पहले
से ही कई दिनों
से अशांत था, लेकिन आज
उसे लगा कि उसके
सिर में मानो कोई
ज्वालामुखी फट रहा हो।
डर, बेचैनी और उलझन ने
उसे घेर लिया था।
उसने आँखें बंद करने की
कोशिश की, पर पलकें
जरा-सी बंद करतीं
कि भीतर की बेचैनी
और अधिक फैल जाती।
पूरी
रात वह जागता रहा—अकेला, असुरक्षित और अनजाने भय
से भरा।
सुबह
जब वह अपने काम
निपटाकर पढ़ने बैठा तो रात
भर की जागरण से
सिर भारी हो रहा
था। कुछ देर में
ही वह फिर उठकर
बालकनी में आ खड़ा
हुआ। सड़क पर आते-जाते लोगों को
देखकर उसका मन थोड़ा
हल्का हो, इस आशा
से वह वहाँ खड़ा
रहा, मगर विचार उसका
पीछा नहीं छोड़ रहे
थे। वह सोच रहा
था—बस तीन महीने
पहले तक, वह जीवन
को अपने वश में
समझता था। आज सब
कुछ उसकी पकड़ से
फिसलता जा रहा था।
उसे
लगा जैसे उसके मस्तिष्क
की नसों में खून
तेज़ी से उबल रहा
हो। उसके सामने भविष्य
की धुँधली तस्वीर घूमने लगी—एक ऐसी
तस्वीर जिसमें कुछ भी स्पष्ट
नहीं था। उसके भीतर
एक डर था कि
वह जीवन के असली
सत्य को अभी तक
समझ नहीं पाया।
वह सोच रहा था—आज हमारे माता-पिता हमारी चिंता करते हैं, हमारा ख्याल रखते हैं, पर एक दिन ऐसा आएगा जब वे हम पर निर्भर होंगे। तब हमारी जिम्मेदारी होगी कि हम उनका सहारा बनें। भाई अपनी नौकरी और परिवार में व्यस्त हो जाएंगे… आखिर मेरा रास्ता कौन तय करेगा? मेरा वजूद मुझे ही ढूँढना होगा।
जब वह इन्हीं विचारों
में डूबा हुआ था,
तभी राजन ने आकर
उसके कंधे पर हाथ
रखा। वह मानो गहरे
समुद्र से अचानक सतह
पर लौट आया।
“तुम यहाँ इतने देर
से क्यों खड़े हो?” राजन
ने पूछा।
सिद्धार्थ बस हल्का-सा
मुस्कुराया और बिना कुछ
बोले कमरे में जाकर
लेट गया। उसके भीतर
कंपकंपी सी दौड़ रही
थी। नाड़ी तेज़ हो गई
थी। मन, शरीर और
आत्मा सब थके हुए
लग रहे थे।
परीक्षा
का स्थगित होना…
राजन का चयन न
होना और घर पर
झूठी जानकारी देना…
भँवरलाल की संगत…
आर्थिक तंगी के बहाने
खाने की चीज़ों के
लिए टोकना…
और अपने पसंदीदा काम—अंग्रेज़ी, पेंटिंग, रचनात्मकता—सबसे दूर होना…
इन सबने मिलकर सिद्धार्थ
पर जैसे आँधी-सी
ला दी थी।
अधूरी
नींद में अगली सुबह
उसकी हालत और खराब
हो गई। उस दिन
राजन ने अकेले ही
खाना बनाया और उसे आराम
करने को कहा। सिद्धार्थ
खाना खाकर फिर लेट
गया—मन सूना था,
भीतर कहीं रोने जैसा
लगा, पर आँसू भी
नहीं आए। नकारात्मक विचारों
का बोझ भीतर गहराता
जा रहा था।
उसे
लगने लगा कि न
गाँव वापस जा सकता
हूँ, न पिता और
बड़े भाई के पास,
और न ही इस
हालत में जयपुर में
रह सकता हूँ। उसे
चारों ओर अंधेरा ही
नजर आ रहा था—जैसे जीवन की
सारी दिशाएँ एक साथ बंद
हो चुकी हों। शायद
जीवन को समझने में
कहीं कोई बड़ी भूल
हो गई थी। छोटा
बेटा होना भी आज
एक बोझ की तरह
महसूस हो रहा था।
PART - 3
सिद्धार्थ
के बिगड़ते हाल को देखकर
राजन ने सोचा कि
घर से लंबे समय
तक दूर रहने के
कारण वह मानसिक रूप
से थक गया है।
उसने कहा,
“तुम्हें तीन महीने हो
गए जयपुर आए हुए। कुछ
दिन के लिए माँ
के पास गाँव चले
जाओ। जब मन ठीक
हो जाए तो वापस
आ जाना।”
अब सिद्धार्थ में कोई निर्णय
लेने की शक्ति नहीं
बची थी। वह परिस्थितियों
के साथ बहता जा
रहा था। राजन की
सलाह पर उसने घर
जाने को हाँ कह
दिया।
अगली
सुबह राजन ने उसे
गाँव जाने वाली बस
में बैठा दिया। सिद्धार्थ
बिना किसी प्रतिक्रिया के
बस में चढ़ गया—मानो शरीर बस
एक ढाँचा हो और आत्मा
कहीं दूर भटक रही
हो। उसके मस्तिष्क की
नसें खिंच रही थीं,
जैसे कभी भी फट
जाएँ। सिर भारी था,
आँखें बोझिल। उसने उन्हें बंद
कर लिया।
सात
घंटे का सफर था—कैसे बीता, उसे
कुछ पता नहीं चला।
बस के चलने, रुकने,
मुड़ने—किसी बात का
एहसास तक नहीं हुआ।
अचानक
किसी परिचित जगह का नाम
कानों में पड़ा—
कंडक्टर चिल्ला रहा था, “फव्वारा
चौक वाली सवारियाँ जल्दी उतरें!”
बस फिर चलने लगी,
तब सिद्धार्थ ने धीरे से
कहा, “भैया… बस रोकना… मुझे
भी उतरना है।”
कंडक्टर
ने बस रुकवाई और
सिद्धार्थ उतर गया। उसके
पैरों में थकान थी,
पर दिमाग खाली। वहाँ से उसने
गाँव की बस पकड़ी
और शाम के चार
बजे वह घर पहुँचा—लेकिन दरवाज़े पर ताला लटका
मिला। पता चला, कुछ
दिनों पहले ही विजय
माँ को अपने साथ
एलनपुर ले गया था।
वह अपने ताऊ के
बेटे सुरेश के घर पहुँचा।
वहाँ चाय-नाश्ता कराया
गया, पर सिद्धार्थ के
बोलने के तरीक़े से
ही सुरेश और उसकी पत्नी
समझ गए कि उसकी
तबियत ठीक नहीं है।
सिद्धार्थ ने सफ़र की
थकान का बहाना किया
और कहा कि वह
अपने घर पर आराम
करेगा।
चाबी
लेकर वह अपने सूने,
शांत, बंद पड़े घर
की ओर चल पड़ा—
अपने भीतर की बेचैनी
के साथ, अकेला।
राजन
भी सिद्धार्थ की बिगड़ती हालत
को लेकर बेचैन था।
यद्यपि उसने उसे बस
में बैठा दिया था,
पर उसके चेहरे की
पीली पड़ी थकान और
आँखों का खालीपन देखकर
राजन को बार-बार
यही डर सताने लगा
कि कहीं सिद्धार्थ रास्ते
में उतर न जाए,
कहीं वह घर पहुँचे
ही नहीं। उस समय मोबाइल
का चलन भी नहीं
था कि बीच राह
में उसकी खबर ली
जा सके। यह चिंता
उसे अंदर तक कचोट
रही थी। अंततः उसने
निर्णय लिया कि वह
भी उसी रात गाँव
जाएगा। जल्दी-जल्दी तैयार होकर वह अगली
बस से अपने घर
की ओर निकल पड़ा।
सिद्धार्थ
के पहुँचने के लगभग दो
घंटे बाद राजन भी
गाँव पहुँच गया। रास्ते में
सुरेश का घर पड़ता
था, इसलिए वह पहले वहीं
गया। सुरेश ने बताया कि
सिद्धार्थ आ तो गया
है, पर सीधा अपने
घर जाकर आराम कर
रहा है। राजन के
अचानक पहुँचने पर सुरेश भी
घबरा गया। उसे लगा—कुछ न कुछ
गंभीर बात है। दोनों
भागते हुए सिद्धार्थ के
घर की ओर चले।
घर पहुँचकर उन्होंने जो दृश्य देखा,
उसने उनके पैरों तले
से ज़मीन खिसका दी। सिद्धार्थ स्टोर
की तरह इस्तेमाल होने
वाले कमरे में कुछ
खोज रहा था और
उसके हाथ में मोटी
रस्सी थी। राजन और
सुरेश को भीतर आते
देख वह ठिठक गया।
उसने रस्सी तुरंत फेंक दी और
बिना कुछ बोले खाट
पर जाकर लेट गया।
राजन को सामने देखकर
भी उसकी आँखों में
न कोई चमक थी,
न हैरानी—बस एक सूनी,
बुझी हुई शून्यता। अब
किसी को कोई संदेह
नहीं रहा था—सिद्धार्थ
गहरी मानसिक अवसाद की अवस्था में
पहुँच चुका था। सबने
एकमत होकर तय किया
कि उसे अकेला नहीं
छोड़ा जाएगा।
शाम
को फोन बूथ जाकर
उनके पिता को खबर
भेजी गई। अगले ही
दिन सुबह विजय भी
गाँव पहुँच गया और सब
उसे लेकर एलनपुर लौट
आए।
घर पहुँच कर सबकी व्यथा
बढ़ती चली गई। सिद्धार्थ
की हालत दिन-ब-दिन बिगड़ती जा
रही थी। देसी नुस्खों
से कोई लाभ नहीं
हुआ। वह बिना किसी
प्रसंग के अचानक बोलने
लगता, विशेषकर जब माँ उसके
पास बैठतीं। उसकी याददाश्त भी
बहुत प्रभावित हो चुकी थी—एक कमरे से
दूसरे कमरे में जाते
ही वह भूल जाता
कि उसे क्या कहा
गया था। नहाने जाता
तो एक डिब्बा पानी
डालने के बाद ही
कपड़े पहनकर बाहर आ जाता।
जब कोई सुधार न
दिखा, तो उसे दिमाग
के विशेषज्ञ डॉक्टर को दिखाया गया
और वहीं से उसका
इलाज शुरू हुआ।
लेकिन
स्थिति गंभीर थी। उसके मन
में निरंतर अपने जीवन को
समाप्त करने का विचार
घूमता रहता। बाथरूम में एक बिजली
के तार में लगी
जोड़ पर उसकी नज़र
पड़ गई थी—वह
उसे पकड़कर खुद को खत्म
करने की योजना बार-बार बनाता, पर
घरवाले हमेशा पास रहते, इसलिए
वह ऐसा कर नहीं
पाता।
फिर
एक दिन उसे पता
चला कि डॉक्टर ने
जो दवाएँ दी हैं, उनमें
नींद की गोलियाँ भी
हैं। उसने उन्हें पहचान
लिया। मौका पाकर उसने
दो पत्तों में बची सारी
सोलह–सत्रह गोलियाँ निकाल लीं और एकांत
मिलते ही सब निगल
गया। चार घंटे बाद
जब उसकी आँख खुली,
तो वह गहरी, भारी
नींद से जागा—गोलियाँ
कमज़ोर थीं, इसलिए जान
बच गई। जब यह
बात घरवालों को पता चली
तो सबके चेहरे से
खून उतर गया। अब
दवाइयाँ उससे दूर रखी
जाने लगीं।
फिर
भी इलाज का प्रभाव
कुछ खास न दिखता
था। एक दिन वह
माँ से कुछ पैसे
लेकर चालीस किलोमीटर दूर जिले के
उसी अस्पताल जा पहुँचा जहाँ
उसका इलाज चलता था।
डॉक्टर की पुरानी पर्ची
दिखाकर उसने मेडिकल स्टोर
से दवाइयाँ माँगी। पर केमिस्ट ने
बिना किसी साथ वाले
के दवा देने से
इनकार कर दिया। सिद्धार्थ
को निराशा हुई—उसे नींद
की गोलियाँ चाहिए थीं। वह बाहर
आया और एक रिक्शेवाले
को साथ चलने को
कहा। रिक्शेवाले ने सौ रुपये
से कम में चलने
से मना कर दिया।
इतने पैसे उसके पास
नहीं थे, इसलिए वह
खाली हाथ लौट आया।
घर पहुँचकर उसने किसी से
कुछ नहीं कहा—बस
इतना भर कि वह
अपने दोस्त से मिलकर आ
रहा है। घरवाले यह
समझकर खुश हुए कि
वह अब अपने आप
बाहर आने-जाने लगा
है। पर उसके भीतर
कहीं और ही भूचाल
चल रहा था।
सिद्धार्थ
अब गहरे अवसाद में
धँस चुका था। उसके
दिल में यह धारणा
घर कर गई कि
जीवन की राहें उसके
लिए बंद हो चुकी
हैं। जिन सपनों को
उसने अपने भविष्य के
लिए सजाया था—उसूल, प्रेरणा,
खुशियाँ, पसंद, पहचान और सफलता—सब
धुंध की तरह विलीन
हो चुके थे। वह
अक्सर इन बातों को
अपनी माँ से कहता
रहता और माँ अपने
स्नेहिल स्पर्श से उसे ढांढस
बंधाती रहती। घर वाले किसी
अनहोनी के भय से
उसे पल भर भी
अकेला नहीं छोड़ते, जबकि
सिद्धार्थ एकांत का भूखा हो
उठा था।
एक दिन दोपहर की
चाय के समय अनजाने
में ही घर के
सभी लोग कमरे से
बाहर चले गए। सिद्धार्थ
को वही क्षण मिल
गया जिसका वह इंतज़ार कर
रहा था। उसने चादर
को पंखे से कसकर
बांधा, फंदा गर्दन में
डाला और झूल गया।
तभी बड़े भाई विजय
को अहसास हुआ कि सिद्धार्थ
अकेला है। वह दौड़ते
हुए कमरे में पहुँचा,
और अंदर का दृश्य
देखते ही उसकी चीख
निकल गई। उसने तुरंत
उसके पैरों को पकड़ लिया
और जोर लगाकर उसे
नीचे उतारा। बाकी लोग भी
भागते हुए भीतर आए।
समय की एक सूक्ष्म-सी डोर ने
सिद्धार्थ को बचा लिया
था। सब स्तब्ध, निशब्द
थे—जैसे शब्द भी
डर के मारे कहीं
छिप गए हों।
इस घटना ने पिता
के संकल्प को और कठोर
कर दिया। उन्होंने ठान लिया कि
बेटे का इलाज हर
हाल में करवाएंगे। जानकारी
जुटाने पर दूसरे जिले
के एक डॉक्टर का
पता चला। सिद्धार्थ को
वहाँ ले जाया गया।
जाँच-पड़ताल के बाद डॉक्टर
ने उसे अस्पताल में
भर्ती करने की सलाह
दी। पाँच दिनों तक
इलेक्ट्रिक शॉक और अन्य
उपचार होते रहे; विशेषज्ञ
भी बुलाए गए। सातवें दिन
डॉक्टरों ने राहत की
सांस ली—सिद्धार्थ की
हालत में थोड़ी स्पष्ट
सुधार दिखाई दी। कुछ और
दिनों बाद विशेष निर्देशों
के साथ उसे छुट्टी
दे दी गई। धीरे-धीरे घर में
फिर से उजाला लौटने
लगा। एक महीने के
इलाज, शांति-पाठ और हवन
के बाद सिद्धार्थ पूरी
तरह ठीक हो चुका
था।
यह घटना उसके जीवन
में एक गहरा मोड़
थी। वह अब जीवन
के अर्थ को समझ
चुका था और पूरी
दृढ़ता के साथ अपने
पैरों पर खड़े होने
का निर्णय कर चुका था।
कुछ समय बाद उसने
एलनपुर में एक निजी
स्कूल में अंग्रेज़ी पढ़ाना
शुरू किया। पर वह जानता
था—उसका लक्ष्य कहीं
और है। इसी बीच
राजन की राजस्थान सिविल
सेवा में नियुक्ति हो
गई। सिद्धार्थ ने उससे कुछ
पैसे लिए और दिल्ली
चला गया। दिल्ली में
उसने बैंक परीक्षाओं की
तैयारी के साथ-साथ
कंप्यूटर शिक्षा शुरू की। वह
खोया हुआ जोश फिर
लौट आया। एक वर्ष
के भीतर ही उसे
दिल्ली की एक निजी
कंपनी में नौकरी मिल
गई। इसी दौरान उसने
एमबीए भी पूरा किया
और मेहनत, विनम्रता और संपूर्णता की
चाह के बल पर
एक सफल प्रबंधक के
रूप में पहचाना जाने
लगा। उसकी नम्र आवाज़,
उसका उत्साह, उसका सलीका—सब
उसकी पहचान बन गए।
सिद्धार्थ
ने स्वयं को इतना कार्यरत
और संयमित कर लिया कि
उसने इस घटना की
छाया को फिर कभी
अपने जीवन पर हावी
नहीं होने दिया। फिर
भी, जीवन में कुछ
क्षण ऐसे आ ही
जाते थे जब उसका
यह काला सच उसके
सामने आ खड़ा होता—और उन पलों
में सिद्धार्थ के पास कोई
उत्तर नहीं होता था।
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