The Jaipur Files

 "अगर तुम रोज यूं ही चीनी खाते रहे तो ये कितने दिन चलेगी", खाना खाने के बाद सिद्धार्थ ने जैसे ही चीनी के कुछ दाने मुँह में डाले, राजन तुरंत बोल पड़ा। अपने बड़े भाई के मुँह से यह बात सुनकर सिद्धार्थ एक पल के लिए सकपका सा गया। वह राजन की तरफ देखकर मुस्कराया और बाहर बालकोनी में जाकर खड़ा हो गया। सामने सड़क पर आते जाते वाहनों व लोगों को देखकर वह संसार की गति को समझने की कोशिश कर रहा था। वह बहुत अशांत था और उसके अंदर विचारों का तूफ़ान सा उठ रहा था। राजन की बात उसके दिल को लग गई थी। 

 ग्रेजुएशन करने के बाद सिद्धार्थ ने यूनिवर्सिटी में दाखिले के लिए कई प्रवेश परीक्षाएं दी, लेकिन उसकी पसंद के कोर्स में दाखिला नहीं मिलने पर उसने अंग्रेजी विषय में पोस्ट ग्रेजुएशन करने की सोची ताकि साथ में वह प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी भी कर सके। अंग्रेजी में उसकी रूचि शुरु से ही थी, अतः उसने उसमें दाखिला ले लिया। उसकी माँ गाँव में अकेली थी इसलिए वह गाँव में भी रहता और यूनिवर्सिटी भी आता जाता रहता। सिद्धार्थ के पिता एक अध्यापक थे जिनकी नौकरी दूसरे जिले के एलनपुर शहर में थी। सिद्धार्थ के दो भाई थे और दोनों ही उससे बड़े थे, जिनका नाम राजन और विजय था। सबसे बड़े भाई विजय की शादी हो चुकी थी और वह अपनी पत्नी व एक बेटे के साथ पिता के पास ही रहता था। 

राजन अपनी स्नातकोतर की डिग्री के बाद सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी के लिए जयपुर चला गया। सिद्धार्थ भी बाहर रहकर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करना चाहता था, लेकिन पिता की आमदनी सिमित थी। विजय एक निजी स्कूल में बहुत कम तनख्वाह पर अध्यापक था और राजन की पढ़ाई व रहने का खर्च भी काफी हो जाता था। इसलिए सिद्धार्थ ने अभी अंग्रेजी स्नातकोतर करने की योजना बनाई थी। तीनों भाई अलग अलग जगह पर थे लेकिन उनका आपस में बहुत लगाव था। एक ही कॉलेज में पढ़ने के कारण उनके दोस्त भी सांझे थे और वो खुद भी दोस्त की तरह ही रहते थे।

सिद्धार्थ एक शांत, गंभीर स्वभाव का लेकिन बहुत समझदार लड़का था। अपने खाली समय में वह गाँव के बच्चों कों अंग्रेजी व गणित पढाने लगा। माँ के साथ रहकर वह बहुत आनंदित महसूस करता था। गाँव में उसकी पहचान एक सजीले, सुन्दर व बुद्धिमान युवक के रूप में थी जिसकी बातों से सब प्रभावित होते थे। उसको चित्रकारी का बहुत शौक था। वक़्त मिलते ही वह पेंटिंग बनाकर घर की दीवारों पर टांग देता। चद्दर व हाथ के पंखे पर भी वह माँ के साथ धागे से चित्रकारी करता। उसकी बनाई खूबसूरत पेंटिंग्स देखकर सब उसकी प्रशंसा करते। सिद्धार्थ को एकान्त पसंद था लेकिन वह स्वयं को हमेशा व्यस्त रखता था। उसने कोई ख़ास दोस्त भी नहीं बनाया हुआ था। उसे ख़ुश रहना, प्रेरक कहानियाँ व लेख पढ़ना, औरों को प्रेरित करना तथा अंग्रेजी में बात करना अच्छा लगता था। वस्तुओं को पसंद नापसंद करने का भी उसमें एक ख़ास हुनर था। एक वक़्त था ज़ब घर व आसपास की औरतें चूड़ीवाले से चूड़ी खरीदते समय, सिद्धार्थ से पूछकर उसकी पसंद के अनुसार चूड़ी पहनती थी। घर में सबसे छोटा होने के कारण वह अपने जीवन को अपने तरीके से जीने में व्यस्त था।

समय बीत रहा था। एक दिन राजन जयपुर से गांव आया। डेढ़ वर्ष की तैयारी के बाद उसने सिविल सेवा की परीक्षा दी थी। उसने बताया की उसका नौकरी के लिए चयन तो हो गया था लेकिन वह ज्वाइन नहीं करेगा क्यूंकि रेंक के हिसाब से उसे उसकी मनपसंद पोस्ट नहीं मिल रही थी। इसलिए उसने फिर से परीक्षा देने की बात कही। सिद्धार्थ यह जानकर बहुत ख़ुश हुआ कि राजन की मेहनत रंग लाई थी, कम से कम उसका चयन तो हुआ। उसने भी ठान लिया कि वह भी पोस्टग्रेजुएशन के बाद सिविल सेवा की ही तैयारी करेगा।

एक वर्ष बाद जैसे ही सिद्धार्थ की पोस्टग्रेजुएशन पूर्ण हुई उसने राजन से व घर में सब से जयपुर जाने की बात कही। सबने उसकी बात को मान लिया। लेकिन राजन के जाने के बाद माँ का गांव में अकेला रहना मुमकिन नहीं था,  इसलिए तय हुआ कि विजय आकर माँ को अपने साथ एलनपुर ले जाएगा जहाँ वह पिता के साथ रहता था। सिद्धार्थ निश्चिन्त होकर जयपुर के लिए रवाना हो गया।

सिद्धार्थ अपनी कॉलेज ट्रिप पर एक बार पहले भी जयपुर आया था, इसलिए वह राजन के दिए हुए पते पर आसानी से पहुंच गया। अगस्त का महीना था और गर्मी भी काफी बढ़ गई थी। राजन ने सिद्धार्थ से मिलकर ख़ुशी जाहिर की और सिद्धार्थ ने माँ द्वारा दी गई खाने पीने की वस्तुएं उसे दी। राजन ने खाना बनाने के लिए मिट्टी के तेल वाला एक स्टोव ले रखा था जिसपर वह स्वयं ही खाना बनाता था। अब सिद्धार्थ भी धीरे धीरे खाना बनाना सीख गया और राजन का हाथ बटानें लगा। राजन भी सिविल सेवा की तैयारी के लिए सिद्धार्थ की मदद करने लगा। वह उसे सुबह शाम रोज पढ़ाता और सिद्धार्थ पूरे जोश के साथ तैयारी में लग गया। एक सप्ताह की तैयारी के बाद राजन उसका टेस्ट लेता जिसमें सिद्धार्थ के बहुत अच्छे अंक आते थे। सिद्धार्थ अपनी तैयारी से बहुत उत्साहित था और उसकी तैयारी देखकर राजन भी खुश था। उसे लग रहा था कि अगले वर्ष होने वाली परीक्षा में सिद्धार्थ का भी चयन हो सकता है।

राजन जिस मकान में किराये पर रह रहा था वह निर्माणाधीन था और उस पर अभी पुताई नहीं हुई थी। दीवारों से इंटे साफ झलकती थी। कुछ ही दिनों बाद मकान मालिक ने उन्हें ऊपरी तल पर पुताई हो चुके कमरे में शिफ्ट होने के लिए कहा ताकि उनके कमरे में भी पुताई करवाई जा सके। अतः दोनों ऊपर वाले कमरे में शिफ्ट हो गए। उस कमरे के साथ में एक और छोटा कमरा था जिसमें एक अन्य लड़का भँवरलाल रहता था। वह भी सिविल सेवा की तैयारी करता था। दरअसल वह जहाँ रह रहा था, वह कमरा नहीं बल्कि एक रसोई थी। कम किराया होने के कारण वह उसी में रहने लगा था।

सबकुछ ठीक चल रहा था। लेकिन जो होना है उसे कोई टाल नहीं सकता। किस्मत को शायद कुछ और ही मंजूर था। राजन अब भँवरलाल के पास आने जाने लगा और कई बार उसके साथ ही खाना भी खा लेता। सिद्धार्थ को कह देता कि तुम अपना खाना बना कर खा लेना । चाल ढाल व हावभाव से सिद्धार्थ को भँवरलाल बिलकुल पसंद नहीं था। जब राजन और भंवर लाल बात करते, तो पास ही में होने के कारण सिद्धार्थ को भी सब सुनाई देता था। धीरे धीरे उनकी बातों से पता लगा कि राजन का नौकरी में चयन नहीं हुआ था और और भंवरलाल भी पिछले सात साल से नौकरी की तैयारी कर रहा था और उसका भी अभी तक चयन नहीं हो पाया था। इस वर्ष होने वाली सिविल सेवा की परीक्षा के लिए भी असमंजस की स्थिति थी।

सिद्धार्थ को यह जानकर बहुत बुरा लग रहा था कि राजन ने घर पर अपने चयन के बारे में जो कुछ बताया था, वह सही नहीं था। उसके चयन की बात सुनकर ही उसने सिविल सेवा की तैयारी करने की सोची थी। अब वह राजन के हावभाव व बातों पर ध्यान देने लगा। एक दिन सिद्धार्थ ने खाना बनाया और राजन को भी डालकर दिया। उसने देखा कि राजन रोटी खाते खाते बार बार उबकाई ले रहा था। उसके चेहरे पर चिंता साफ झलक रही थी। स्टोव पर रोटियां इतनी अच्छी नहीं बन पाती थी और खाने में स्वाद भी कम आता था। इसलिए खाना खाने के बाद कई बार सिद्धार्थ थोड़ी चीनी खा लेता था। आज ज़ब उसने चीनी खाई तो राजन ने मज़ाक में उसे टोक दिया। सिद्धार्थ को खाने पीने के लिए कभी किसी ने नहीं टोका था और न ही घर पर कभी खाने की कमी रही थी। 

बालकोनी से वापिस आकर सिद्धार्थ पढ़ने के लिए बैठ गया। उसने एक पल के लिए राजन की तरफ देखा जो दूसरी तरफ सामने ही किताब लेकर पढ़ने के लिए बैठा था। राजन के सामने किताबें तो थी लेकिन उसकी आँखें बंद थी। सिद्धार्थ उसकी तरफ देखता रहा लेकिन राजन काफी देर तक उसी मुद्रा में बैठा रहा। वह उसके चेहरे पर पसरी खामोशी और आंतरिक स्थिति को समझने की कोशिश कर रहा था। 

एक दिन भँवरलाल कमरे में आया और उसने बताया कि अगले वर्ष होने वाली राजस्थान सिविल सेवा की परीक्षा स्थगित हो गई है और यह अब उस से अगले साल होगी, साथ ही बताया कि राजस्थान एडमिनिस्ट्रेशन सिविल की परीक्षाएं कभी भी स्थगित हो जाती हैं और इनके लिए लम्बा इंतज़ार भी करना पड़ सकता है। यह सुनकर सिद्धार्थ चिंतित हो गया। वह सोचकर आया था कि राजन की तरह वह भी जल्दी ही नौकरी हासिल कर लेगा, लेकिन अब सब कुछ उसकी योजना के बिलकुल विपरीत हो रहा था। वह अपने करियर की शुरुआत करने में पहले ही काफी विलम्ब मान रहा था और अब दो और वर्षों का इंतजार उसे बोझिल लग रहा था। उसका मन थोड़ा विचलित रहने लगा। राजन की स्थिति देखकर वह उस से भी अपने मन की बात नहीं बता पा रहा था।

सिद्धार्थ चाह रहा था कि वह जल्दी कुछ करे, लेकिन उसे कुछ सूझ नहीं रहा था। वह अपने गाँव में बिताये दिनों को याद करता, सोचता कि वह अब शायद ही अपनी पेंटिंग व इंग्लिश पर काम कर पाये क्योंकि यहाँ सारा सिलेबस हिंदी माध्यम में था। उसने स्नातक साइंस से किया था, लेकिन अब उसे इतिहास और पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन आदि पढ़ना पड़ रहा था। वह अनमने तरीके से कभी पढता तो कभी यहाँ वहाँ चला जाता। एक दिन दोपहर में वह उस निर्माणाधीन मकान में बालकोनी की तरफ टहल रहा था। खूब गर्मी पड़ रही थी जिस कारण सड़क भी लगभग सुनसान थी। टहलते टहलते उसकी नजर एक जगह जाकर ठहर गई। वह देखता है कि उस सुनसान सड़क पर एक लड़की जा रही थी, तभी एक लड़का मोटरसाइकिल पर आकर उसके पास रुकता है, लड़की उसे देखकर रुक जाती है और वो दोनों बातें करने लगते हैं, लड़का उससे थोड़ी जबरदस्ती करता है, और फिर वो अलग अलग दिशा में चले जाते हैं। सिद्धार्थ को जयपुर शहर में यह सब देखकर थोड़ा अजीब लगा। इसी तरह एक दिन शाम को वह छत पर घूम रहा था, उसने गाड़ी की आवाज़ सुनकर नीचे देखा । बगल वाले मकान के सामने एक लम्बी गाडी आकर खड़ी हुई, देखते ही उसे वह गाड़ी बहुत अच्छी लगी और कुछ देर वह उसे निहारता रहा। उसे गाडी का ब्रांड नाम जानने की उत्सुकता हुई और वह नीचे आ गया। मन ही मन सोच रहा था कि एक दिन वह भी कामयाब होकर यही कार खरीदेगा। उसे इन छोटे छोटे लम्हों में आस पास जिंदगी भी दिखाई दे रही थी।

अपने भविष्य की चिंता और तैयारी की इसी उहापोह के बीच एक दिन शाम को राजन ने सिद्धार्थ से कहा, चलो आज तुम्हें भी भँवरलाल के पास खाना खिला के लाता हूँ"। सिद्धार्थ ने पूछा, "उसके खाने में क्या ख़ास होता है?”, इसपर राजन ने कहा, "चलोगे तो पता लगेगा"। बात बात में सिद्धार्थ भी उसके साथ चल दिया और दोनों भँवरलाल के कमरे में पहुंचे। वहां पर भँवरलाल एक बर्तन में कुछ पका रहा था। सिद्धार्थ को बर्तन से आ रही तीखी गंध बड़ी अजीब लगी जो उससे सही नहीं जा रही थी। आखिर उसने पूछ ही लिया, "इस बर्तन में क्या बन रहा है?" इस पर भँवरलाल थोड़ा मुस्कुराया और राजन की तरफ देखने लगा। सिद्धार्थ कुछ समझ नहीं पाया और वह भी राजन की तरफ देखने लगा। राजन के चेहरे से लगा वह भी बताने में थोड़ा असहज महसूस कर रहा था, लेकिन थोड़ा रुक कर वह बोला, "इसमें मटन बन रहा है।" यह सुनकर सिद्धार्थ थोड़ा सकपकाया कि शायद उसने ठीक से न सुना हो, और पूछा, "मटन ! क्या मतलब ?" इसपर भँवरलाल बोला, "मटन, मतलब बकरे का मांस"। सिद्धार्थ भँवरलाल की तरफ देखता रह गया, उसे जैसे साँप सूंघ गया था। वह राजन की तरफ मुड़ा और बस इतना ही कह पाया, "ये, तुम भी?" राजन ने जवाब दिया, "हाँ, ये तो अपनी इच्छा पर निर्भर होता है, अगर तुम भी चाहो तो हमारे साथ खा सकते हो।", इतने में ही भँवरलाल ने उस बर्तन के ढक्कन को हटा दिया। सिद्धार्थ की नजर उस बर्तन में पड़े टुकड़ों पर पड़ी। उसने आज तक मांस को कभी ऐसे पकाते हुई नहीं देखा था, खाना तो बहुत दूर की बात थी।

सिद्धार्थ वहाँ से उठकर तुरंत अपने कमरे में आ गया। राजन के बारे में सोचकर उसका शरीर कांप रहा था और उसे स्वयं को संभालना मुश्किल हो रहा था। कभी वह कुर्सी पर बैठता तो कभी बालकोनी में चला जाता। वह बैचैन होकर इधर उधर टहल रहा था। थोड़ी देर बाद वह बिस्तर पर लेट गया और सोने की कोशिश करने लगा। उसके मस्तिष्क में तेजी से एक के बाद एक विचार आ रहे थे। भँवरलाल के कमरे से ऐसी गंध पहले भी वह कई बार महसूस कर चुका था ज़ब राजन उसके पास खाना खाने जाता था। राजन ने ज़ब उससे कहा कि "सबकी अपनी इच्छा होती है, तुम चाहो तो हमारे साथ खा सकते हो", यह बात उसके दिल में तीर की तरह चुभ गई थी। राजन को वह अपने आदर्श की तरह मानता था, वही आज उससे अपनी इच्छा के अनुसार निर्णय लेने के लिए कह रहा था। वह कई दिन से अशांत चल रहा था, लेकिन आज उसे लग रहा था उसके सिर में जैसे ज्वालामुखी फट रहा हो। वह अंदर से डर गया था, आँखे बंद नहीं कर पा रहा था। उसे पूरी रात नींद नहीं आई।

अगले दिन सुबह वह सब काम निपटाकर पढ़ने के लिए बैठा, लेकिन रात को नींद न आने से उसके सिर में भारीपन था। थोड़ी देर बार वह कुर्सी से उठकर बालकोनी में चला गया और बाहर आते जाते लोगों को देखकर अपना ध्यान बांटने की कोशिश करने लगा, लेकिन विचार उसका पीछा नहीं छोड़ रहे थे। वह सोच रहा था कि तीन महीने पहले तक वह जिस जिंदगी को अपनी पकड़ में समझ रहा था, आज सब उसे अपने हाथ से फिसलता हुआ नजर आ रहा था। उसे महसूस हुआ जैसे उसके मस्तिष्क की नसों में खून तेज़ गति से दौड़ रहा है। उसके सामने उसके भविष्य की तस्वीर फ़िल्म की तरह चल रही थी जिसमें सब धुंधला दिख रहा था। वह जिंदगी के वास्तविक रूप को समझ नहीं पाया था। वह सोच रहा था कि आज हमारे माँ बाप बैठे हैं, वो हमें पैसा दे रहे हैं, हमारा ख्याल रखते हैं, हमारी चिंता करतें हैं, लेकिन एक समय आएगा ज़ब वे हम पर निर्भर होंगे, तब हमें उनकी भी देखभाल करनी होगी। भाई अपनी नौकरी और अपने परिवार में व्यस्त हो जाएंगे। शायद मुझे अपना वजूद स्वयं ही तलाशना था और तलाशना होगा। अगर यही सच्चाई है तो फिर वह किसी पर निर्भर क्यों रहा। कुछ देर बाद राजन ने आकर जैसे ही उसके कंधे पर हाथ रखा, वह विचारों के समंदर से बाहर आया। राजन ने पूछा, "तुम इतनी देर से यहाँ क्यों खड़े हो?" सिद्धार्थ हल्का सा मुस्कुराया और बिना कुछ बोले कमरे में जाकर लेट गया। उसने महसूस किया कि उसकी नाड़ी तेज़ थी और शरीर में कम्पन सी पैदा हो गई थी। परीक्षा का स्थगित हो जाना, राजन का अभी तक चयन न होना व घर पर सही जानकारी न देना, राजन की भँवरलाल के साथ गलत संगत, स्वयं निर्णय लेने के लिए राजन द्वारा उसे जगाना, आर्थिक स्थिति का हवाला देकर खाने पीने की वस्तुओं के लिए टोकना व अपनी पसंद की चीजें न कर पाना सिद्धार्थ के लिए कहर बन गया था। 

आधी अधूरी नींद के बाद सिद्धार्थ ज़ब सुबह उठा तो वह अच्छा महसूस नहीं कर रहा था। इसलिए उस दिन खाना अकेले राजन ने ही बनाया और उसे आराम करने को कहा। सिद्धार्थ खाना खाकर फिर लेट गया। उसका मन नहीं लग रहा था और भीतर ही भीतर दिल रोने को कर रहा था। उसके अंदर हर चीज के लिए नकरात्मकता भर चुकी थी। उसे लग रहा था आज की तारीख में वह न गांव वापिस जा सकता था, न अपने पिता व बड़े भाई के पास और न ही इस स्थिति में वह जयपुर रह सकता था। उसको सब तरफ अंधकार नजर आ रहा था। उसको शायद जिंदगी को समझने में कहीं भूल हो गई थी। छोटा होने का ख़ामियाजा उसे भुगतना पड़ रहा था। सिद्धार्थ की हालत देखकर राजन को लगा कि बहुत दिनों बाद घर से बाहर आने के कारण शायद उसका मन नहीं लग रहा था। उसने सिद्धार्थ से कहा कि तुम्हें जयपुर आये तीन महीने हो गए हैं, कुछ दिन के लिए माँ के पास गांव चले जाओ और ज़ब अच्छा महसूस करो तब आ जाना। सिद्धार्थ का अब खुद पर से नियंत्रण ख़त्म होता जा रहा था और वह निर्णय लेने की स्थिति में नहीं था। राजन के कहने पर वह घर जाने को तैयार हो गया। 

अगले दिन सुबह राजन ने सिद्धार्थ को गाँव जाने वाली बस में बिठा दिया। सिद्धार्थ अचेत सी अवस्था में बस में बैठ गया। उसके मस्तिष्क की नसों में खिंचाव था, उसे लग रहा था जैसे नसें फटने को हों। सिर में भारीपन होने के कारण उसने अपनी आँखें बंद कर ली। उसको लगभग सात घंटे का सफर तय करना था। बस चलने का या रुकने का भी उसे कुछ आभास नहीं हो रहा था। अचानक कुछ जाना पहचाना सा नाम सुनकर उसकी निद्रा टूटी। बस का कंडक्टर कह रहा था, "फव्वारा चौक वाली सवारियां जल्दी उतरें।" सवारी उतारने के बाद बस जैसे ही चलने को हुई, सिद्धार्थ ने कंडक्टर को बस रोकने को कहा, क्योंकि उसे भी वहीं उतरना था। सात घंटे का सफर कैसे कटा उसे कुछ पता नहीं चला। कंडक्टर ने फिर से बस रुकवाकर उसे उतार दिया। सिद्धार्थ ने वहाँ से जैसे तैसे अपने गांव के लिए बस ली और लगभग चार बजे सांय वह अपने घर पंहुचा, लेकिन घर ताला लगा हुआ था। उसे पता चला कि माँ को विजय उसके जाने के कुछ दिन बाद अपने साथ ले गया था। वह अपने ताऊ के लड़के सुरेश के घर गया। वहाँ वह कुछ देर के लिए बैठा और चाय नाश्ता लिया। लेकिन उसके बात करने के तरीके से सुरेश व उसकी पत्नी भांप गए कि सिद्धार्थ की तबियत ठीक नहीं है। सिद्धार्थ ने यह कह कर टालने की कोशिश की कि सफर की थकान है, अतः वह अपने घर पर ही आराम करना चाहता है। मकान की चाबी लेकर वह अपने घर की तरफ चला गया।

इधर राजन भी सिद्धार्थ की तबियत को लेकर बहुत चिंतित था। उसने सिद्धार्थ को बस में बिठा तो दिया था लेकिन उसकी हालत देखकर राजन को संदेह हो रहा था कि कहीं सिद्धार्थ रास्ते में ही न उतर जाए, अगर वह घर न पंहुचा तो ! क्योंकि उस समय मोबाइल फ़ोन का जमाना नहीं होता था कि सफर बीच पता कर सके। इसी चिंता व उहापोह की स्थिति में राजन ने निर्णय लिया कि वह भी आज ही गाँव जाएगा। वह जल्दी से तैयार होकर अगली बस से अपने गांव के लिए निकल लिया। सिद्धार्थ के पहुंचने के दो घंटे बाद राजन भी गांव में था। रास्ते में सुरेश का घर पड़ता था इसलिए पहले वह उसी के घर चला गया और सिद्धार्थ के बारे में पूछा। सुरेश ने बताया कि वह दो घंटे पहले ही पंहुचा है और घर पर ही आराम कर रहा है। राजन के भी अचानक पहुंचने पर सुरेश को कुछ अनहोनी की आशंका हुई। वे दोनों तुरंत घर की तरफ दौड़े। वहाँ जाकर वे देखते हैं कि सिद्धार्थ घर के स्टोर वाले कमरे में कुछ ढूंढ़ रहा था और एक हाथ में मोटी रस्सी उठाई हुई थी। उन दोनों को सामने देख कर उसने रस्सी फेंक दी और चुपचाप खाट पर लेट गया। राजन को वहाँ देखकर भी उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। अब सब उसकी मनोस्थिति समझ चुके थे। सिद्धार्थ डिप्रेशन की स्थिति में था। इसलिए उन्होंने उसे अकेला न छोड़ने की बात कही। शाम को फ़ोन बूथ पर जाकर उनके पिता को खबर की गई। अगले दिन सुबह विजय भी गांव पहुंच गया और वो तीनों एलनपुर के लिए रवाना हो गए।

परिवार के सभी सदस्य सिद्धार्थ की यह हालत देखकर बहुत व्यथित हुए। घर पर देसी तरीकों से उसका इलाज़ किया गया लेकिन उसकी हालत में कोई सुधार नहीं हुआ। वह बिना वजह बोलता रहता खासकर जब माँ उसके पास होती, उसकी यादाश्त पर भी बहुत बुरा असर पड़ा था। अगर उस से कुछ काम कहा जाता तो वह एक कमरे से दूसरे कमरे में जाते जाते ही भूल जाता। नहाने जाता तो एक डिब्बा पानी डालने के तुरंत बाद कपड़े पहन लेता और बाहर आ जाता। हालत में सुधार न होता देख उसे दिमाग के विशेषज्ञ डॉक्टर को दिखाया गया और वहाँ से उसका इलाज़ शुरु हुआ। लेकिन वह अत्यधिक डिप्रेशन की स्थिति में था और स्वयं के जीवन को ख़त्म करने की सोचता रहता। बाथरूम में एक बिजली के तार में जोड़ था, वह उसे पकड़ने की योजना में रहता लेकिन सब आसपास होने के कारण वह हिम्मत नहीं कर पाया। ज़ब उसे पता चला कि डॉक्टर द्वारा दी गई दवाइयों में नींद की गोलियां भी हैं, तो उसने उनकी पहचान कर ली। मौका पाकर उसने दो पत्ते में बची सभी सोलह सतरह गोलियां निकल ली और एकांत मिलते ही सारी गोलियां गटक गया। चार घंटे की गहरी नींद के बाद उसकी आँख खुली। शुक्र ये रहा कि कम ताकत की होने के कारण गोलियों ने असर नहीं किया। परिवार वालों को जब पता लगा तो उनके पैरों तले की ज़मीन खिसक गई। उन्होंने दवाइयों को उससे दूर रखना शुरू कर दिया। सिद्धार्थ पर इलाज़ का कोई ख़ास असर नहीं हो रहा था। एक दिन वह अपनी माँ से कुछ पैसे लेकर चालीस किलोमीटर दूर जिले के उसी अस्पताल में पहुंच गया जहाँ से उसका इलाज़ चल रहा था। डॉक्टर द्वारा दी गई पुरानी स्लिप पर उसने मेडिकल स्टोर से दवाइयां मांगी, लेकिन केमिस्ट ने यह कहकर मना कर दिया की कोई साथ होना चाहिए तभी वह दवाइयां देगा। सिद्धार्थ का मकसद नींद की गोलियां लेना था। उसे कुछ नहीं सूझा तो वह एक रिक्शा वाले के पास गया और कुछ पैसे लेकर साथ चलने को कहा। लेकिन रिक्शा वाले ने सौ रुपए से कम में साथ चलने से मना कर दिया। सिद्धार्थ के पास इतने पैसे नहीं थे, इसलिए उसे खाली हाथ ही घर लौटना पड़ा। उसने घर पर किसी को कुछ नहीं बताया, बस ये कहा कि वह अपने दोस्त के पास चला गया था। घर वाले खुश थे कि वह बाहर अपने आप आने जाने लगा, लेकिन उसके दिमाग़ में कुछ और ही चल रहा था।

सिद्धार्थ अत्यधिक डिप्रेशन में चला गया था। उसके दिल में यह बात बैठ गई थी कि उसके पास अब जीने का कहीं कोई रास्ता नहीं बचा है। जो सपने उसने अपने जीवन के लिए संजोये थे वो अब ख़त्म हो चुके थे। जिन उसूल, प्रेरणा, ख़ुशी, पसंद, पहचान, सफलता के साथ उसने जीने की महत्वकांक्षा पाली थी, वह कहीं खो चुकी थी। वह अपनी माँ से इन सब के बारे में बातें करता रहता, माँ उसे सांत्वना देती रहती। कुछ अनहोनी के डर से घर वाले उसे अकेला नहीं छोड़ते थे और सिद्धार्थ एकांत की तलाश में रहता था। एक दिन दोपहर में चाय के वक़्त अनजाने में ही सब कमरे से बाहर थे। सिद्धार्थ को एकांत मिल गया, उसने चद्दर को पंखे से बाँध लिया और फिर अपनी गर्दन के चारों तरफ लपेटकर झूल गया। बड़े भाई विजय को एहसास हुआ कि सिद्धार्थ अकेला है, वह तुरंत कमरे में गया। जैसे ही उसने कमरे में प्रवेश किया उसकी चीख निकल गई, उसने तुरन्त सिद्धार्थ की टांगो को पकड़ लिया। सब उसकी तरफ भागे और उसे नीचे उतरा। एन वक़्त पर आने से विजय ने सिद्धार्थ को बचा लिया था। सब हक्के बक्के थे और कुछ बोल नहीं पा रहे थे।

इस घटना के बाद उनके पिता ने ठान लिया कि वह सिद्धार्थ का इलाज़ करवा कर ही रहेगा। कुछ लोगों से मिलने व इस बारे में जानकारी जुटाने के बाद दूसरे जिले में एक और डॉक्टर के बारे में पता चला। सिद्धार्थ को उसके पास ले जाया गया। डॉक्टर ने सभी टेस्ट करने के बाद उसे अस्पताल में दाखिल करने के लिए कहा। पिता जी ने उसे दाखिल करवा दिया। पांच दिन तक इलेक्ट्रिक शॉक देने के साथ साथ अन्य सभी प्रकार के इलाज़ किए गए। विशेषज्ञ डॉक्टरों को भी बुलाया गया। सातवें दिन डॉक्टर्स को थोड़ी सफलता हाथ लगी और सिद्धार्थ की हालत में सुधार होता हुआ दिखाई दिया। वह अब कुछ ठीक महसूस कर रहा था। कुछ दिन बाद ख़ास दिशा निर्दशों के साथ सिद्धार्थ को छुट्टी दे दी गई। धीरे धीरे उसकी हालत में सुधार होने लगा। घर में ख़ुशी फिर लौट रही थी। एक महीने के इलाज़, शांति पाठ व हवन पूजा के बाद सिद्धार्थ अब बिलकुल ठीक हो गया था।

यह घटना उसकी जिंदगी में एक बड़ा मोड़ लेकर आई थी। वह जिंदगी को समझ चुका था और उसने स्वयं पर निर्भर रहते हुई अपना जीवन जीने की ठानी। कुछ दिन बाद उसने एलनपुर में रहते हुए एक निजी स्कूल में अंग्रेजी पढाना शुरू कर दिया। लेकिन उसको अध्यापक नहीं बनना था, उसका मकसद कुछ बड़ा करने का था। इस दौरान राजन की भी राजस्थान सिविल सेवा में नौकरी लग चुकी थी। सिद्धार्थ ने राजन से कुछ पैसे लिए और दिल्ली चला गया। वहाँ कुछ दिन उसने बैंक की प्रतियोगी परीक्षायों की तैयारी की और साथ में कंप्यूटर सीखने लगा। वह फिर से अपना जोश व जज़्बा पा चुका था। कंप्यूटर में उसने जल्दी ही महारत हासिल कर ली और एक साल के अंदर ही उसे दिल्ली में एक निजी कंपनी में नौकरी मिल गई। वह अब अपनी पसंद के क्षेत्र में आ चुका था। जल्दी ही उसने एमबीए भी कर लिया और एक मैनेजर के तौर पर अपने काम और लग्न के बल पर कामयाब हुआ। ख़ुशी, प्रेरणा, उत्साह, कुछ नया करने की चाह, गंभीरता, सज्जनता, हर काम में व स्वयं में संपूर्णता लाने की इच्छा व नर्म आवाज़ अब उसकी पहचान बन चुके थे।

सिद्धार्थ ने स्वयं को इतना व्यस्त कर लिया कि उसने दोबारा कभी इस घटना का असर अपने जीवन पर नहीं होने दिया। लेकिन चाहे अनचाहे जीवन में कुछ ऐसे क्षण आ ही जाते थे जब उसका यह काला सच उसके सामने आकर खड़ा हो जाता था और इसका जवाब सिद्धार्थ के पास नहीं होता था। 


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