किसी चीज के अच्छे लगने को शब्दों के पैमाने में तोल कर निर्णय नहीं लिया जा सकता। इस अभिव्यक्ति के कई प्रकार होते हैं। जैसे राधा को कृष्ण अच्छे लगते थे, चाँद को चकोर अच्छा लगता है और एक शेर को हिरण अच्छा लगता है, लेकिन अच्छे लगने की तीनों परिस्थितियाँ भिन्न हैं। राधा ने कृष्ण को शब्दों में वर्णित किया, लेकिन रिश्ता अधूरा रहा। चकोर चाँद को शब्दों में वर्णित नहीं कर पाया लेकिन मज़बूत रिश्ता बना गया और प्रसिद्ध हो गया। शेर हिरण को शब्दों में नहीं बता सकता कि वह उसे क्यूँ अच्छा लगता है। किसी ख़ास मौके पर शब्दों में लिपटी बधाई न देने का मतलब यह नहीं कि कोई हमें अच्छा नहीं लगता। तात्पर्य यह है कि अच्छे लगने की कोई शाब्दिक परिभाषा नहीं है और न ही इसके परिणाम सुनिश्चित हैं। आत्मजनित निष्पक्ष भाव से ही केवल इसे समझा जा सकता है।
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