संबंधों की रचनात्मक प्रक्रिया

 हमारा मस्तिष्क हर वक़्त सोच विचार की प्रक्रिया में व्यस्त रहता है। हम हर उस वस्तु या व्यक्ति के बारे में  सोचते रहते हैं जिसकी हमें इच्छा होती है या जिसे हम पाना चाहते हैं। अपनी सुविधा अनुसार हम कांट छाँट कर हर वस्तु का एक फ्रेमवर्क अपने दिमाग़ में तैयार कर लेते हैं, जिसे हम चॉइस या पसंद का नाम दे देते हैं। 


फ्रेमवर्क तैयार होने के बाद मस्तिष्क अब प्रयोग करना शुरु कर देता है। जब कोई वस्तु या व्यक्ति की आकृति हमारे द्वारा बनाये उस फ्रेमवर्क में फिट होती दिखाई देती है, तो उस आकृति के प्रति हमारी उत्सुकता बढ़ने लगती है, और हम उसकी तरफ आकर्षित होने लगते हैं। हमें अपनी कल्पना वास्तविक रूप लेती हुई दिखाई देती है। लेकिन वह आकृति इस पूरी प्रक्रिया से अनजान होती है। जरूरी नहीं कि वह वस्तु या व्यक्ति भी उसकी तरफ उसकी तरह ही रेस्पॉन्ड करे, क्योंकि उसका स्वयं का भी एक फ्रेमवर्क होता है जिसमें शायद सामने वाला फिट ना हो पा रहा हो। 


वह कल्पनाशील व्यक्ति एक प्रक्रिया के तहत उत्पन्न आकर्षण के कारण उस भौतिक प्रतिकृति से भावनात्मक जुड़ाव महसूस करने लगता है तथा उस पर समय व्यतीत करना शुरु कर देता है। उसके इस व्यवहार से उस प्रतिकृति को कुछ ख़ास होने का आभास होने लगता है, और इसी में उसे ख़ुशी भी मिलने लगती है। अब वह प्रतिकृति स्वार्थी होने लगती है और स्वयं के फ्रेमवर्क में ना होने के बावजूद कहीं न कहीं परिस्थितियों से समझौता करना शुरु कर देती है। यहाँ उसका उद्देश्य उस व्यक्ति की कल्पनाशीलता न होकर स्वयं की आत्मकेंद्रित ख़ुशी होता है। ज़ब तक उसको ख़ास होने की ख़ुशी मिलती है, तब तक वह प्रतिकृति कुछ भी अलग महसूस नहीं होने देती।


ऐसे संबंध में कल्पनाशील व्यक्ति व प्रतिकृति, दोनों का उद्देश्य अलग अलग है। व्यक्ति कल्पनाशीलता के सहारे होता है और प्रतिकृति उम्मीदों के। उस कल्पनाशीलता में व्यक्ति प्रतिकृति को इतना अहम बना देता है कि प्रतिकृति उस ख़ास बने माहौल में एक प्रतिशत की भी कमी नहीं देखना चाहती। लेकिन यह हमेशा संभव नहीं होता। उस के लिए सब कुछ जीरो या सौ प्रतिशत होता है। धीरे धीरे वह प्रतिकृति रेस्पॉन्ड करना बंद कर देती है। इस प्रक्रिया को हम कई बार बेवफाई या धोखेबाज़ी का भी नाम दे देते हैं।इस तरह उस व्यक्ति को अनजाने में ही अपनी उस प्रतिकृति से दूरी बनानी पड़ती है, लेकिन वह चाहकर भी अपने उस कपोल कल्पित रचना के भौतिक स्वरूप से स्वयं को अलग नहीं कर पाता। उसकी कल्पनाशीलता को अब जैसे एक आकार मिल गया होता है। 


इस तथ्य का एक दूसरा पहलू भी है। अगर मिलनस्वरुप दोनों एक दूसरे के फ्रेमवर्क में फिट हो रहे होते हैं, तो यह प्रक्रिया अवर्णनीय हो जाती है। उनका एक मजबूत और लम्बी अवधि का संबंध स्थापित हो जाता है और अपनी फंतासी को वो नई ऊचाईयों तक ले जाते हैं। इस प्रक्रिया से उपजे संबंध को सच्चे या ताकतवर प्रेम का रूप भी कहा जाता है। 

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